Monday, 13 January 2020

ABOUT LORD SHIVA IN HINDI .

33 कोटि देवताओं में शिव ही कहलाये महादेव।।
।।आइये चले शिव की ओर ।।

 भारतीय मान्यता अनुसार 33 कोटि देवताओं में शंकर इसलिए महोदय को लाएं क्योंकि देवताओं और राक्षसों द्वारा संभावित रूप से किए गए समुद्र मंथन से निकलने हलाहल को देवा सुरों के आग्रह पर अपने कंठ में धारण कर खुद जलते हुए संसार के प्राणियों की। रक्षा की पार्वती ने जब शिव से अपनी मांग के सिंदूर की रक्षा की बात कही तो उन्होंने विश्व को कंठ में रोक लिया। विष के प्रभाव स्वरूप उनका कंठ नीला हो गया। इसलिए उन्हें नीलकंठ के नाम से भी जाना जाता है। एक तरफ शिव ने निशान कर जरत सकल सुर बृंद की रक्षा की तो दूसरी तरफ मुझसे कंठ में ही रोककर अपनी प्रिया पार्वती की मांग के सिंदूर को भी बचाया। इस महान कार्य की सभी ने भूरी भूरी प्रशंसा की और जय जयकार किया तभी से शंकर देव नहीं महादेव कॉलोनी लगे कविवर रहीम ने अपनी दोहे में इसका संकेत किया है।।


।।।। मान सहित विष खाई के शंभू भए जगदीश।।।।
।।।।बिना मान अमृत भख्यो राहु कटाए शीश।।।।।



सत्यम शिवम सुंदरम का समन्वय शिव का अर्थ ही होता है ।
कल्याण कारक मंगल पर शिव विश्व चेतना में निहित वह तत्व है ।जो लोकमंगल की दिशा में उन्मुख करता है ।मनुष्य को मनुष्य के हितार्थ उन्मुख करने की भावना शिवम है। सत्य के बारे में यह एक निर्विवाद तथ्य है कि जो आडंबर रहित एक कृतित्व है। वह सत्य है और सुंदरम सत्यम एवं शिवम को  समेट कर चलने वाली वह अनुभूति एवं अभिव्यक्ति का उत्कर्ष है। जिसमें आनंद की वर्षा होती है ।सत्य का प्रकाश शिवम की ज्योति से अनुप्राणित होकर सुंदरम की मनोहर अभिव्यक्ति करता है। सत्यम शिवम सुंदरम इन तीनों का सामान्य  जीवन को पूर्णता प्रदान करता है। मानवीय मूल्यों को एक स्थाई रूप देता है ।छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत ने सत्यम शिवम सुंदरम को इन शब्दों में एकाकार किया है।।

 ।।वही प्रज्ञा का सत स्वरूप हृदय में बनता है अपार।।
 ।।लोचन में लावण्या अनूप लोक सेवा में शिव अधिकार।।








Sunday, 12 January 2020

शिव आज भी गुरु हैं साहेब श्री हरीन्द्रानंद जी ।।।

!मन से मानो शिव आज भी गुरु हैं!

हमारे गुरु शिव ।।

शिव के निराकार साकार स्वरूप विवेद ने किया गया है। सदाशिव के रूप में वे इच्छा ज्ञान किया चित और आनंद के अथाह सागर हैं ।।अतएव निराकार साकार दोनों स्थितियां हो सकती हैं।। शिष्य को स्वतंत्रता है कि आरंभिक अवस्था में वह गुरु की निराकार स्थिति को स्वीकार करें या साकार स्वरूप को अंगीकार करें किसी भी परिस्थिति में शिव के लिए शिव गुरु की मात्र सा कार्य स्थिति स्वीकार्य नहीं है ।
शिव के शिष्य शिव गुरु को भाव सत्ता के रूप में नमन करते हैं कहा गया है कि है महेश्वर तुम्हें जानना समझना और पहचानना अनु मानस की सीमा से बाहर की बात है तुम जैसे भी हो तुम्हें बारंबार नमस्कार है ।।
 शिव गुरु की दया कालांतर में गुरु सत्ता की परिस्थिति स्पष्ट कर देती है। यह तो सर्वथा मान्य है कि गुरु का शरीर धारी होना आवश्यक नहीं है। शिव के शिष्य जानते हैं कि शिव गुरु दया भाव के अच्छे स्रोत हैं ।और सृष्टि के कण-कण में उनकी इच्छा के साथ सतत मिश्रित दया भाव भी सन्निहित है।।
 मानव के अस्तित्व में गुरु भाव की स्थिति है ।
व्यक्ति जैसे ही शिव को शिव से भाव निवेदित करता है मानवीय चेतना में अवस्थित उनका दया भाव होता   स्वता कार्यरत हो जाता है।। वस्तुतः शिव गुरु की दया ही वास्तविक दीक्षा है।
 शिवगुरु के शिशु के लिए पारंपरिक दीक्षा आवश्यक नहीं है और साहब कहते हैं कि बिना गुरु के दया से उनकी चर्चा हो ही नहीं सकती गुरु है। जगत के गुरु हैं उनके गुरु हैं कोई भी अपना उन्हें गुरु मान सकता है और उनकी चर्चा कर सकता है जैसे हमने माना है वैसे ही आप को गुरु माना है और उनके तीन सूत्र का पालन करना है। दया मांगना है ।चर्चा करना है और नमः शिवाय से गुरु को प्रणाम करना है। आप कभी भी कहीं भी गुरु का चर्चा कर सकते हैं किसी से   साहब का आ आदेश है।।


जीवात्मा से जुड़ी प्रत्यक्ष्ति अप्रत्यक्ष स्थितियां एवं माध्यम ही शिव धाम में  प्रतिष्ठित मनुष्य आत्मा को  शिव गुरु की दया के वशात  शिवम मुख्य करनेेे लगते हैंउल्लेख है ।कि मानव शरीर में  अभिभूत सभी गुरुओं सद्गुरु मैं महेश्वर शिव का दया भाव ही विभिन्न् अंशु में प्रस्फुटित होता है।

।  शिव गुरु दया के एकमात्र जाता है ।

शेष सभी swarnam Dhanya Guru tatha Satguru pradata ke roopमैं पूजित हैं ।
कहा गया है कि ब्रह्मा गुरु को भी आंतर गुरु होना होता है वाणी शब्दों  और मौन व्याख्यान कि सीमा से भी परे जाकर शीश आत्मा की परमात्मा से अन्विति  सुनिश्चित करनी होती है गुरु सत्ता की  शरीर की स्थिति गुरु शिष्य संबंध में महत्वपूर्ण नहीं मानी जाती है आज भी गुरु सद्गुरु के देहावसान के उपरांत उनकी शिष्य परंपरा निर्विघ्नं चलती है।।
मनुष्य के सहज प्रेम से परमात्मा लाभ है।इसी प्रेम उत्सव से सब भक्ति आधुनिक और तांत्रिक धारा प्रवाहित हुई है।
 प्रेम मनुष्य का जन्मजात गुण है ।इसलिए प्रेम से संबंध परमात्मा पत्र की सारी विधाएं संप्रदाय जाति लिंग आदि के भेद को नहीं मानती है। शिव गुरु से शिष्य संबंध की भाव वस्था गुरु दया से उत्तरोत्तर प्रेमा विमुख हो जाती है। भाव संबंध प्रेम में परिणत हो जाता है प्रेम शिव गुरु से शिष्य को एक मेल कर देता है ज्ञातव्य है। कि शिव का शिष्य होने के लिए केवल अस्थाई शिष्य भाव अनिवार्य है। गुरु शिष्य का संबंध ही भाव भूमि पर आधारित होता है आज के व्यक्ति में प्रभाव जागतिक आकर्षण के कारण आलौकिक उनमें से काली विशेष में उत्पन्न हो तो किंतु अनस चेतना को प्रभावित नहीं कर पाता शिव गुरु के प्रति शिष्य भाव प्रवण होकर व्यक्ति का स्वभाव हो जाए ऐसी स्थिति सामान्य नहीं है।।
 शिव को अपना गुरु मानकर उनका शिष्य होने के क्रम में प्राप्त विभूतियों के आधार पर तीन सूत्र समहत किये गए हैं ।।



Wednesday, 8 January 2020

शिव गुरु की चर्चा साहेब श्री हरिन्द्रानंद जी लेटेस्ट 2020 ।।

शिवगुरु है: एक प्रयोग

 जगत की सृष्टि के मूल में है इच्छा उच्च शिक्षा में की इच्छा से प्रारंभ होती है लीला नंद की लीला चलता है ।कालचक्र और सृष्टि के विकास क्रम में श्रेष्ठ होता है ।मनुष्य परमात्मा इच्छा करने को स्वतंत्र है और वह करता है ।मनुष्य भी करता है वह भी सृजन करता है ।और परमात्मा की तरह इच्छाएं करता है यह और बात है कि मनुष्य की इच्छा जब इच्छा शक्ति में परिणत होती है तोबा मनोनुकूल कार्य करने का प्रयास करता है।जबकि परमात्मा की इच्छा ही शक्ति है ।जीव जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। जगत में रहने वाले की इच्छा के विपरीत मृत्यु से ले जाती है ।सुखाराम प्राप्त करने की चेष्टा में वह बीमार होता है दुख जलता है अपेक्षित इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती और अनुचित रूप से इच्छाओं की पूर्ति भी हो जाती है ।दूसरी इच्छा पनपने लगती है यह क्रम चलता ही रहता है। जब तक इच्छापूर्ति रहेगी उसकी पूर्ति तक दुख पैदा होगा उसकी पूर्ति आंशिक पूर्ति के बाद दूसरी इच्छा जावेगी कारण स्पष्ट है। मनुष्य की इच्छा का मूल स्रोत परमात्मा की इच्छा है ।जीव की यह रक्तबीज की तरह पनपने वाली इच्छा उस वृहद इच्छा का अंश है और जब तक या इच्छा उस वृहत इच्छा में समाहित नहीं होती आनंद नहीं मिलेगा आनंद का अर्थ है जहां इच्छा की व्यवस्था नहीं है।।।
अपने जीवन में अमन चाहे दुख खेलते हैं असफलताओं से दुखी होते हैं स्वस्थ रहने की चेष्टा के बावजूद भी बीमार होते हैं जीवन अनचाहे समझौते से बनाकर  दिखता है आखिर दृश्य अदृश्य दुखों के घटनाक्रम के पीछे कौन करता है इसी शक्ति को अध्यात्मिक शक्ति धमका सकते हैं यही है पारलौकिक शक्ति जो परमात्मा की नियामक शक्ति है यह शक्ति मनुष्य के पास भी है जिसे बोधी कहते हैं शारीरिक शक्ति से अधिक सूक्ष्म है मानसिक शक्ति और मानसिक मानसिक शक्ति से अधिक व्यापक है आध्यात्मिक शक्ति मन को एकमात्र जगत के सुख और समृद्धि का चिंतन करने को छोड़ दे तो यह स्थूल होगा मन संकुचित होगा स्वार्थी होकर मात्र अपना सुख खो जेगा आध्यात्मिक चिंतन या उस विराट का चिंतन मन को विशालता प्रदान करता है और वह परहित एवं मानव हित की सोचता है भगवान बुद्ध महावीर इशा मोहम्मद गुरु नानक कबीर आदि का उदाहरण स्पष्ट है  मन है कि गुरु ही आध्यात्मिक शक्ति शक्ति के विकास के प्रेरणा स्रोत रहे हैं पारंपरिक प्रकाश के आलोक स्तंभ का कार्य किया है गुरुओं ने इनगुरू की श्रृंखला में शिव प्रथम गुरु है आदिगुरु है जगतगुरु है तंत्र साहित्य मूल रूप से शिव पार्वती संवाद है जिस में शिव गुरु हैं। और भवानी है शिक्षा शिव ही सभी पारलौकिक विधाओं की अंतिम पराकाष्ठा है ।आचरण से साधु है वैष्णवी साधु है भाव में भी  साधु है उन्होंने सर्वहित में विषपान किया और सामान्य जन के लिए मृत्यु के धारक हैं उन सभी को वशीभूत कर अपना आभूषण बनाया अति सामान्य जीवन ही शिव की कथा है वह गुरुओं के गुरु हैं कथा
शिव अध्यात्मिक सभी विधाओं के परम ज्ञाता है तंत्र के प्रणेता है प्रणिता है योगेश्वर हैं महा कापालिक तथा महाभैरव हैं गोरखनाथ के गुरु सत्येंद्र नाथ का शिव शिष्य होना हाल की ऐतिहासिक प्रमाणिकता है जिन्होंने चौसठ योगिनी यों की स्थापना की सर्वश्री किनाराम तैलंग स्वामी रामकृष्ण परमहंस आदि अध्यात्मिक विभूतियों के बाद आज हम पाते हैं गुरु पद मुख्यतः भौतिक सुख एवं सम्मान का साधन हो आया है भगवान बुध महावीर से लेकर रामकृष्ण परमहंस तक सभी गुरु मूल रूप से अचार्य  रहे साधु दामन में ऐसी थी कि आचरण में आ गई रहन-सहन में आ गई सामान्य से अति सामान्य जीवन हो गया आज कठिनता से कुछ गुरुओं का दैनिक जीवन हम सामान्य पाते हैं ऐसा भी नहीं है कि बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कोई नहीं अध्यात्मिक विधा पनपी है और साधना पूजा के नए सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है।। संत और गुरु में अंतर है परमात्मा के कार्यक्षेत्र और गुरु के कार्य क्षेत्र में वेद किया जा सकता है परमात्मा समभाव में है वे रोगी के रूप में बीमार होते हैं और चिकित्सक के रूप में चिकित्सा करते हैं वह जीव में भी हैं और शिव में भी हैं अंगुलिमाल में भी है तो बुध में भी हैं किसी संत की ऊंचाई मापने अत्यंत दुष्कर है जबकि गुरु की पहचान उसका शिष्य होता है शिष्य से ही गुरु को जाना जाता  है शीशे के कर्मों से ही गुरु को जाना जाता है इसके शिक्षा से ही गुरु को जाना जाता है शिष्य के ज्ञान से ही गुरु को जाना जाता है इसीलिए गुरु की पहचान उसका शिष्य होता है चिकित्सक की पहचान लोगी होता है दानी की पहचान याचक होता है गुरु की गरमा शिष्य के शिव होने पर निर्भर करती है शिव होना गुरु पद के अस्तित्व का कारण है।।
 आज का परिवेश अधिकांशत पंचम कार में जी  रहा है। साधना को जाति से दूर व्यक्ति भौतिकवाद की ओर भागा चला जा रहा है ऐसी परिस्थिति में मात्र उपदेश सुनने से कामनाओं और वासनाओं का त्याग अत्यंत कठिन है ।भौतिक सुख-सुविधा की वर्जना का साधन पूजा की ओर अग्रसर होना दुष्कर हो गया है ।तंत्र वर्जना ओ की बात नहीं करता यह पंच मकार आदि साधना   पद्धतियों से स्वत स्पष्ट है तंत्र कहता है।

 तृप्ति भोग में है चित्त वृत्ति निरोध योग निरोध योग इस काल में कठिन हो  आया है किंतु तंत्र की विधा को भोग में योग की बात कहती है। प्रवृत्ति से प्रवृत्ति के द्वारा ही निवृत्ति हो सकती है बशर्ते सही गुरु का मार्ग निर्देशन प्राप्त हो सही गुरु के अभाव में तो भोग पर रोक नहीं लगता भोग के सागर में मनुष्य को डुबो  देना होगा यही कारण है कि सभी आध्यात्मिक  विभूतियों के द्वारा गुरु को सर्वोच्च माना गया है। उन्हें परमात्मा से भी अधिक महत्व दिया गया है। कहा जाता है कि कोई भी गुरु शिव साम्राज्य के अधीन होता है ।शिव सद्गुरु के भी गुरु है गुरु की परिभाषा है कि वह शिष्य में शिव का भाव आवेश जलाते हैं गुरु शिष्य को अपने जैसा बनाते हैं सद्गुरु शिष्य को भोग और मोक्ष अभिन्न रूप से देते हैं। शिव को जगतगुरु सभी गुरुओं का गुरु माना जाना अर्थहीन नहीं है।

महज औपचारिकता नहीं है अगर पंथ के सिद्ध गुरु बाबा कीनाराम और योगीराज गोरखनाथ में व्यक्तिगत रूचि यों के आधार पर  विभेद है किसी सिद्ध गुरु के द्वारा आध्यात्मिक पराकाष्ठा पर पहुंचने हेतु गृहस्थ जीवन की वर्जना की गई हो तो किसी सिद्ध गुरु के द्वारा सन्यास और गृहस्थ में कोई बंधन माना गया है।

 शिव गृहस्थ जीवन यापन करने वाले सिद्ध गुरुओं के भी गुरु हैं और अकेला जीवन जीने वाले सद्गुरु ओं के भी गुरु हैं प्रत्येक सद्गुरु अपने अपने सैद्धांतिक विचारों के अनुरूप शिष्यों को शिव की  ओर ले जाते हैं।।।
 साहब श्री harindranand जी।।

 साहब कहते हैं इशू में अध्यात्मिक सभी आयामों का  सम्मेलन दिखता है  वे योगेश्वर हैं अघोरेश्वर हैं तंत्र के प्रणेता है वह गुरु है इसका अर्थ है कि वह सभी शिष्य को शिव बनाते हैं वह जगतगुरु है इसका अर्थ है कि जगत में योग मार्ग तंत्र मार्ग अघोर पंथ या अन्य किसी साधन मार्ग से अगर कोई अध्यात्म की ओर चलना चाहता है तो वह शिव  काशी से हो सकता है  वे सभी विधाओं के परम ज्ञाता हैं।।।




अभी अट्ठा नाम तथा गुण वाले गुरु की कमी होने के कारण आवश्यकता हो गई है। कि अपने घर के बाबा शिव को गुरु माना जाए उन्हीं का शिष्यतह  ग्रहण किया जाए  घर घर के बाबा शिव ही जो जगतगुरु हैं वही परम  ज्ञानागा र है।

 यह कतई आवश्यक नहीं है कि गुरु मानव शरीर में गुरु का कार्य कर सकते हैं कहा गया है कि सद्गुरु मात्र  दया से मोक्ष  देते हैं स्पष्ट है कि परमात्मा जब जीव को कालचक्र से वापस आनंद की परिधि में लाना चाहते हैं तो परमात्मा के इसी करुणा भाव  को गुरू भाव खाते हैं
 गुरु भाव जिस मानव शरीर में प्रकट होता है वह गुरु का शरीर होता है ।गुरु का संबंध मात्र  शिष्य से होता है। अर्थात गुरु भाव और शिष्य भाव में अन्योन्याश्रित संबंध है ।शिष्य भाव  मनु पैदा होता है मन में ही अन्य भाव पैदा होते हैं जैसे पिता भाव मात्र भाव मित्र भाव का भाव आदि मनुष्य के सारे संबंधित भाव प्रधान है ।भाव के तिरोहित होते ही संबंध बिखर जाते हैं कि वह संबोधन की औपचारिकता चलती रहती है। गुरु शिष्य पिता-पुत्र पति-पत्नी आदि संबंध भाव की आधारशिला पर खड़े हैं ।।

तंत्र कहता है कि भाव का अवलंबन शिव गुरु के रूप में भाव  सत्ता है क्योंकि गुरु को शिष्य के भाव से भावित होना है गुरु पद का सृजन ही शिष्यों के लिए है कि जब गुरु है तो गुरु का कार्य करना उनकी जवाबदेही है अगर कोई उन्हें गुरु भाव देता है यानी अपने में उनके गुरु होने का शिष्य भाव पैदा करता है तो शिव उस शिष्य को अपने जैसा बढ़ाने का भार वाहन करना होगा आदिकाल से अभी तक जगतगुरु की उपाधि से विभूषित  है इससे स्पष्ट है कि अपने शिष्य को शिव बनाने का भार  वे वाहन करते रहे हैं।

 गुरु रूपी शिव सत्ता को यदि अपना शिष्य भाव दिया जाए तो निश्चित रूप से शिष्य के शिव होने का प्रक्रिया प्रारंभ होगी मानसिक चिंतन धारा स्वार्थ जनित कटक बंधुओं को तोड़कर  सर्व मैं  होगी ही क्योंकि शिव   सर्वमय सर्वतंत्र स्वरूप है।।


  




Shiv charcha saheb shree harindranand ji ki ..

शिव चर्चा साहेब श्री हरींद्रानंद जी

  

           शिव गुरु की शिष्यता =शास्त्रों में बहुत पहले कहा गया है शिव गुरु हैं .. जगतगुरु नमस्तुब्भ्याम , गुरुना गुरुवे नमः अदि बहुत सारे श्लोक हैं शिव क गुरु पद पर लेकिन आपने उनहे गुरु नहीं बनाया . ऐसा नहीं की आप शिव या महादेव से परचित नहीं हैं .मै जब झारखण्ड में डिप्टी सेक्रेटरी था तब हमारे अधीनस्त कर्मचारीगण आवदेन देते थे , मुझे देवघर जाना  है .  चार दिनों का अवकाश चाहिए अर्थात इससे हम इतनी पर्ची तो जरूर हो जाते हैं कि सावन के महीने में देवघर कांवर लेकर जाना है जिस शिव गुरु को कहा जा रहा है उसी से हम परिचित नहीं है ऐसा भी नहीं है। कहते हैं बाबा धाम जाना है या बाबा के घर जाना है इतना नजदीक संबंध है हमारा खानदान दर खानदान का दोनों एक ही सत्ता के नाम है ।उसी के बारे में कहा गया है कि वह गुरु है और सबसे बड़े गुरु है जगतगुरु हैं।  जगतगुरु का अर्थ होता है कि जगत के प्रत्येक प्राणी का इतना अधिकार है उस पर भी कोई भी व्यक्ति उसे अपना गुरु बना सकता है ।चाहे वह समुद्र के किनारे रहने वाला हो चाहे रेगिस्तान में वह किसी भी जाति विशेष के गुरु नहीं है। किसी एक संप्रदाय के गुरु नहीं है। किसी धर्म विशेष के गुरु नहीं है इसलिए उन्हें कहा गया है कि यह जगतगुरु है इनके पास कोई शर्त नहीं है अन्य गुरु तो शर्त लगा सकते हैं।।




 गुरु गो गुरु गोरखनाथ कर सकते हैं शिष्य बनना है ।तो सुरा और सुंदरी का त्याग करके आओ शिव जगतगुरु हैं वह कोई शर्त नहीं लगाते हैं ।शिष्य बनने में आप जॉब करते हैं शो करें जो खाते हैं वह खाएं शिव को गुरु बनाएं तब देखे कि लोग जो कह रहे हैं। वह बात कितनी सच है कितनी झूठ है गुरु का गुण नहीं होगा  हम मानेंगे किसी गुरु अब नहीं रहे आदि गुरु का गुरु होगा तो लाभ मिलेगा क्या जाता है बाबा तो हैं। अपने ही बाबा को गुरु मानने की बात हो रही है ।हमारे बिहार और झारखंड में कहा जाता है कि चंदा मामा सबके मामा शिव घर घर के बाबा आपको मालूम है कि ज्ञान कितना महत्वपूर्ण है ज्ञान का अर्थ होता है। ज्ञान का अर्थ होता है समझ भगवान बुद्ध को पूरी की पूरी समझ आ गई थी हमारी समझ पूर्णता में नहीं है।।
मेरी पत्नी का देहांत 17 जून 2005 को हुआ कोई बदलाव नहीं आया हमारे जीवन में सब कुछ वैसा का वैसा ही है मन नहीं समझ पाया कि हम भी जाएंगे सूचना तो है।। हम लोगों को लेकिन समझ नहीं है ।जरा गौर कीजिए हमारी आपकी यात्रा कितने दिनों की है हम आप कितने दिनों के लिए यहां आए हैं यदि हमें सूचना है कि हमें एक दिन जाना है तो इतना हंगामा क्यों इतनी परेशानी क्यों है क्या हो गया है हमें इसी समझ को देते हैं गुरु जैसे-जैसे समझ आएगी मन का बोझ कम होता जाएगा जैसे-जैसे ज्ञान होगा मन शांत होने लगेगा 5000 वर्ष का इतिहास है कितनी पूजा होती है कितनी साधनाएं होती हैं इससे तो हम लोग इंसान भी नहीं बन पाए भगवान की पूजा करते हैं तो मन भगवान के जैसा होना चाहिए था ना कहां बन पाया मन वैसा कारण है कि जीवन में योग्य गुरु का अभाव है सबको पता है कि हमारे बाबा से बड़ा गुरु कोई नहीं है शिव से बड़ा गुरु कोई नहीं है तब हम शिव को ही गुरु क्यों नहीं बना रहे शिव को गुरु बनाने में कोई शर्त नहीं   मुझे 20 वर्ष हो गए यह कहते हुए कि शिव को गुरु बनाइए इन्हें ग्रुप बनाने में कुछ नहीं लगता गुरु तो मन बनाएगा शिव तो हमारा आपका मन बनता है शरीर नहीं उसमें हमारे आपके वस्त्र और आभूषण काम नहीं करते हैं धन्य ध्यान की जरूरत नहीं पड़ती सिर्फ मन में इस विचार का आना ही काफी है किसी मेरे गुरु हैं और मैं उनका शिष्य हूं यही विचार कालांतर में घनीभूत होकर भाव में  परिणत हो जाएगा तथा भाव जब  प्रगाढ़ होगा तो प्रेम में परिणत हो जाएगा प्रेम मनुष्य का जन्मजात गुण है शिव गुरु से शिष्य का संबंध उत्तरोत्तर प्रेमा विमुख हो जाता है प्रेम शिव गुरु से शिष्य को एक मेक कर देगा मान है किसी गुरु शिष्य को अपने जैसा बनाते हैं।
 ।।दीदी नीलम आनंद।।

  जगतगुरु का अर्थ होता है कि-- जगत के प्रत्येक प्राणी का इतना अधिकार है उस पर कि कोई भी व्यक्ति उसे अपना गुरु बना सकता है। चाहे वह समुद्र के किनारे वाला हो चाहे रेगिस्तान में चाहे कहीं भी वह किसी जाति विशेष के गुरु नहीं है। किसी एक संप्रदाय के गुरु नहीं है किसी धर्म विशेष के गुरु नहीं है उन्हें कोई भी ग्रुप बना सकता है यह शिव गुरु है जगत के गुरु हैं।।

 आइए भगवान शिव को गुरु बनाएं और तीन सूत्र का  पालन करें दया *चर्चा* नमः शिवाय*

।।।। आदेश साहब श्री हरिंद्रानंद जी प्रथम शिव शिष्य।  ।।।।।


                      जिज्ञासा समाधान

   प्रश्न ---शिव शिष्य का होने के लिए खानपान की कोई  वर्जना  आरोपित नहीं है यह नियम की भी बाधित अपूर्व रोपित नहीं है जबकि शरीर धारी गुरुओं के द्वारा खानपान की पवित्रता और यह नियम का बंधन है इस बिंदु पर कृपया प्रकाश डालने की कृपा करें। ?

 उत्तर --शिव जगत के गुरु हैं वही जगत के पिता हैं ।अतः प्रत्येक व्यक्ति को उनका शिष्य होने का अधिकार है ।जगतगुरु जब शब्द का अर्थ है ।जो सारे जगत के मनुष्य का गुरु है अगर कोई शर्त होगी तो उन्हें जगतगुरु नहीं कहा जाएगा जा सकता इसलिए जगतगुरु शिव कि शिष्य ता मैं किसी प्रकार की पवित्रता यह नियम के पालन पर जोर नहीं दिया गया है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि गुरु की ओर शर्ते दी जाती हैं यहां उनकी ओर से कोई शर्त नहीं दी गई है उन्हें गुरुओं का गुरु कहा गया है कि वह किसी प्रवृत्ति या प्रकृति के मनुष्य को बिना किसी शर्त के अपना शिष्य बना सकते हैं। आज करोड़ों लोग ने बिना किसी बंधन के शिव को गुरु माना है ।और उनके जीवन की दशा और दिशा में दिखने वाले सकारात्मक कल्याणकारी परिणाम  इस तथ्य की पुष्टि करता है ।कि गुरु के रूप में शिव बिना किसी शर्त के सचमुच में परिणाम दाई गुरु है।
           
        ।।।  साहब श्री हरिंद्रानंद  जी।।।

Sunday, 5 January 2020

शिव गुरु चर्चा साहेब श्री हरिन्द्रा नंद जी ।।

।।प्रथम शिव शिष्य साहब श्री हरिन्द्रा नंद जी ।।

 ।।आओ चले शिव की ओर ।।
।।साहेब श्री हरिन्द्रा नन्द जी की जीवनी।।
हम चलते हैं समय के उन लम्हों के पास जहाँ से उपजता है यह।। शिव आज भी गुरु हैं ।।, और वे जन जन के गुरु हैं । ईयर 1948के ठंड की सर्दियों के आगमन के साथ दीपावली के दिन प्रातः कार्तिक कृष्णा पक्षी चतुर्दशी को बिहार जिले के तात्कालिक छपरा जिले के सिवान से 5 किलोमीटर की दूरी पर अवस्तित गांव।। अमलोरी।। के एक मिट्टी के घर में जन्म हुआ था हरिन्द्रा नंद जी का ।। उनके पिता श्री विश्वनाथ सिन्हा और माता श्री मति राधा की प्रथम संतान के रूप में वह ज्योति प्रकट हुई थी।।
वर्ष 1961में उनके पिता शिक्षा विभाग में मुंगेर के जमुई अनुमंडल में अनुमंडल शिक्षा पदाधिकारी के रूप में पद स्तापित थे।।उन्ही दिनों पिता से मिलने आये एक तांत्रिक से श्री हरिन्द्रा नन्द जी का आठवां कच्छ का बचपन उलझ पड़ा और वही से शुरू है कहानी जब उन्होंने तांत्रिक क्रियाओं को सीखने के लिए समशान और साधुओं का संघ पकड़ा ।उनके पिता कहते थे कि वर्ष 1953 - 54 में जब हरिन्द्रानंद जी 5 वर्ष के थे तो उनकी आदतों में शामिल था अपने दोस्तो के साथ आसन लगाकर बैठना और भूत प्रेत , तंत्र मंत्र की तरह , तरह की बाते करना। वह यह भी बताते थे कि अध्यन में उनकी रुचि काम थी लेकिन ।शिव की तश्वीर को कुर्शी टेबल लगाकर दीवार से उतारना और पेट्रोल के खाली डिब्बे में पानी भरकर घर की सीढ़ियों की मेज के रूप में इस्तेमाल कर कर रबर की पाइप से पानी गिरा गिरा कर शिशे में मढ़ी हुई शिव की तस्वीरों को पानी से गला देना उनकी आदत थी।।
आठवी कच्छ के पूर्व से रात में समशान की साधना की और दिन के उजाले में तरह तरह की योग साधना करने का अभ्यास उन्होने प्रारम्भ किया ।उनका यह शौक पारिवारिक मान्यता के विपरीत था ।।विद्यालय शिक्षा राज्य के भिन्न जिलो में चलती रही और हायर सेकंडरी शिक्षा की लगभग तीन वर्ष की अवधि के क्रम में सहायता जिला कारागार के निकट एक नदी के किनारे रात्रि में वे समशान जाते थे ।।समशान की साधना करने  वाले दो तीन व्यक्तियों से समशान में उनकी मित्रता भी हुई ।।उस समय साहेब स्कूल के स्टूडेंट थे ।। वर्ष 1972 में हरिन्द्रा नंद जी का विवाह तात्कालिन पलामू जिले के मनातू प्रखंड में सम्पन हुआ । उनके पिता को विश्वास था की विवाहोपरांत बेटे की बेतुकी आदतों में परिवर्तन हो जाएगा ।।उन्हे  dar था कि समशान साधना और अध्यात्म में बढ़ते झुकाव के कारण उनका बेटा लौकिक जीवन से विरात न हो जाए ।।


परिणाम यह हुआ कि साधना और उसे बताने वालो के प्रति उनके मन मे तिव्र वितृष्णा उत्पान हुई और वर्ष 1974के नवंबर माह में इसी मानसिक अवसाद की स्थिति में श्री हरिन्द्रानंद नंद जी के मन मे एक विचार आया ।।वह श्लोक उन्हे स्मरण आया जिसे पाठषाला में याद कराया गया था ।।

      ।।गुरुब्रह्म गुरुर्विष्णुः गुरुदेवो महेश्ववर ।।

    ।।गुरु साक्षात पारब्रह्म , तश्मे श्री गुरुवेनमः।।

गुरु ब्रह्मा है , गुरु विष्णु है , गुरु महेश्ववर है, गुरु साक्षात परमात्मा है।। हरिन्द्रानंद जी परमात्मा भगवान शिव को समझते थे और उन्होंने भगवान शिव को परमात्मा समझ कर शिव को अपना गुरु बना लिया साथ ही साथ दुखी मन से तय किया कि जब शिव को गुरु बना लिया है तो गुरुओ , तांत्रिक , अघिरियों द्वारा बतलायी और सिखलाई गई साधना और पूजा अब नही करेंगे । महादेव भी ,जिनको उन्होने गुरु बना लिया आसमान से लोक में प्रचलित शिव वेश में प्रकट होंगे तो भी उनसे गुरु रूप में वे कुछ नही सीखेंगे एवं धरती के किसी भी शरीरधारी साधु अथवा गुरु से भी कुछ नही सीखेंगे ।।



**मुझ से मनुष्य जो होते हैं , कंचन का भार न धोते हैं ।

पाते हैं धन बिखराने को, लाते है रतन लूटने को।

जग से न कभी कुछ लेते है, दान ही ह्रदय का देते है।।**



साहेब श्री हरिन्द्रानंद जी ने महेश्ववर शिव को अपना गुरु मानकर उनके शिष्य होने का कार्य ईयर 1980के दसक से शुरू किया था ।
श्रद्धा ,विश्वास और समर्पण के अभाव में भी महेश्ववर शिव की शिष्यता अंकुरित पल्लवित ,पुष्पित हो सकती है ,होती है। उनकी शिष्यता के फूलों की सुगंध अविश्वास अश्रद्धा ,संशय को विनास्थ कर देती है।।विश्व गुरु शिव स्वयं शिव गुरु को वर्ल्ड मानव के अभ्युदय का उत्तरदायित्व लेना ही पड़ेगा ।।दूसरी ओर आज विकसित हो रही मानवीय चेतना के दया भाव अर्थात गुरुभाव से जुड़ने का एकमात्र विकल्प ही अब ग्रहा है ।।
साहेब श्री हरिन्द्रानंद जी कहते है ।।
शिव को अपना गुरु बनाइये और उनके आदेश का पालन करिये ।। 
 साहेब ने 3 सूत्र दिए है ।।
1) दया मांगना है अपने गुरु से ।।
2 )चर्चा करना है गुरु की ।
3) नमः शिवाय से अपने गुरु शिव को प्रणाम करना है ।

।।वैभव और विलासिता से दूर शिव साधुता की पहली तथा अंतिम पहचान । है शिव सुरो से पूजित है तो असुरो से भी ।उनका यह स्वरूप दर्शाता है कि मिनिमम व्यस्तता में ही सुख शांति है और सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी शिव हो सकता है।।।

शिव आदि काल से जगतगुरु की उपाधि से विभूषित । सभी सद्गुरु होने के कारण कोई भी वयक्ति उनका शिष्य हो सकता है। शिव की शिष्यता सांसारिक समृद्धि ही नही अपितु शिवतअव भी देती है । आवश्यकता है उनको अपना गुरु मान कर शिष्य भाव उत्पन किया जाए क्योंकि गुरुपद का सिरजन ही मात्र शिष्यों के लिए है।। यह कथन है वरेण्य गुरुब्रह्ता ही श्री हरिन्द्रानंद जी के जिनहे हम *साहेब *के नाम से जानते है जिन्होने इस आधुनिक युग मे शिव की शिसस्यता एकमात्र विकल्प का उद्द्घोष किया ।





ABOUT LORD SHIVA IN HINDI .

33 कोटि देवताओं में शिव ही कहलाये महादेव।। ।।आइये चले शिव की ओर ।।  भारतीय मान्यता अनुसार 33 कोटि देवताओं में शंकर इसलिए महोदय को लाएं...