Wednesday, 8 January 2020

शिव गुरु की चर्चा साहेब श्री हरिन्द्रानंद जी लेटेस्ट 2020 ।।

शिवगुरु है: एक प्रयोग

 जगत की सृष्टि के मूल में है इच्छा उच्च शिक्षा में की इच्छा से प्रारंभ होती है लीला नंद की लीला चलता है ।कालचक्र और सृष्टि के विकास क्रम में श्रेष्ठ होता है ।मनुष्य परमात्मा इच्छा करने को स्वतंत्र है और वह करता है ।मनुष्य भी करता है वह भी सृजन करता है ।और परमात्मा की तरह इच्छाएं करता है यह और बात है कि मनुष्य की इच्छा जब इच्छा शक्ति में परिणत होती है तोबा मनोनुकूल कार्य करने का प्रयास करता है।जबकि परमात्मा की इच्छा ही शक्ति है ।जीव जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। जगत में रहने वाले की इच्छा के विपरीत मृत्यु से ले जाती है ।सुखाराम प्राप्त करने की चेष्टा में वह बीमार होता है दुख जलता है अपेक्षित इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती और अनुचित रूप से इच्छाओं की पूर्ति भी हो जाती है ।दूसरी इच्छा पनपने लगती है यह क्रम चलता ही रहता है। जब तक इच्छापूर्ति रहेगी उसकी पूर्ति तक दुख पैदा होगा उसकी पूर्ति आंशिक पूर्ति के बाद दूसरी इच्छा जावेगी कारण स्पष्ट है। मनुष्य की इच्छा का मूल स्रोत परमात्मा की इच्छा है ।जीव की यह रक्तबीज की तरह पनपने वाली इच्छा उस वृहद इच्छा का अंश है और जब तक या इच्छा उस वृहत इच्छा में समाहित नहीं होती आनंद नहीं मिलेगा आनंद का अर्थ है जहां इच्छा की व्यवस्था नहीं है।।।
अपने जीवन में अमन चाहे दुख खेलते हैं असफलताओं से दुखी होते हैं स्वस्थ रहने की चेष्टा के बावजूद भी बीमार होते हैं जीवन अनचाहे समझौते से बनाकर  दिखता है आखिर दृश्य अदृश्य दुखों के घटनाक्रम के पीछे कौन करता है इसी शक्ति को अध्यात्मिक शक्ति धमका सकते हैं यही है पारलौकिक शक्ति जो परमात्मा की नियामक शक्ति है यह शक्ति मनुष्य के पास भी है जिसे बोधी कहते हैं शारीरिक शक्ति से अधिक सूक्ष्म है मानसिक शक्ति और मानसिक मानसिक शक्ति से अधिक व्यापक है आध्यात्मिक शक्ति मन को एकमात्र जगत के सुख और समृद्धि का चिंतन करने को छोड़ दे तो यह स्थूल होगा मन संकुचित होगा स्वार्थी होकर मात्र अपना सुख खो जेगा आध्यात्मिक चिंतन या उस विराट का चिंतन मन को विशालता प्रदान करता है और वह परहित एवं मानव हित की सोचता है भगवान बुद्ध महावीर इशा मोहम्मद गुरु नानक कबीर आदि का उदाहरण स्पष्ट है  मन है कि गुरु ही आध्यात्मिक शक्ति शक्ति के विकास के प्रेरणा स्रोत रहे हैं पारंपरिक प्रकाश के आलोक स्तंभ का कार्य किया है गुरुओं ने इनगुरू की श्रृंखला में शिव प्रथम गुरु है आदिगुरु है जगतगुरु है तंत्र साहित्य मूल रूप से शिव पार्वती संवाद है जिस में शिव गुरु हैं। और भवानी है शिक्षा शिव ही सभी पारलौकिक विधाओं की अंतिम पराकाष्ठा है ।आचरण से साधु है वैष्णवी साधु है भाव में भी  साधु है उन्होंने सर्वहित में विषपान किया और सामान्य जन के लिए मृत्यु के धारक हैं उन सभी को वशीभूत कर अपना आभूषण बनाया अति सामान्य जीवन ही शिव की कथा है वह गुरुओं के गुरु हैं कथा
शिव अध्यात्मिक सभी विधाओं के परम ज्ञाता है तंत्र के प्रणेता है प्रणिता है योगेश्वर हैं महा कापालिक तथा महाभैरव हैं गोरखनाथ के गुरु सत्येंद्र नाथ का शिव शिष्य होना हाल की ऐतिहासिक प्रमाणिकता है जिन्होंने चौसठ योगिनी यों की स्थापना की सर्वश्री किनाराम तैलंग स्वामी रामकृष्ण परमहंस आदि अध्यात्मिक विभूतियों के बाद आज हम पाते हैं गुरु पद मुख्यतः भौतिक सुख एवं सम्मान का साधन हो आया है भगवान बुध महावीर से लेकर रामकृष्ण परमहंस तक सभी गुरु मूल रूप से अचार्य  रहे साधु दामन में ऐसी थी कि आचरण में आ गई रहन-सहन में आ गई सामान्य से अति सामान्य जीवन हो गया आज कठिनता से कुछ गुरुओं का दैनिक जीवन हम सामान्य पाते हैं ऐसा भी नहीं है कि बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कोई नहीं अध्यात्मिक विधा पनपी है और साधना पूजा के नए सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है।। संत और गुरु में अंतर है परमात्मा के कार्यक्षेत्र और गुरु के कार्य क्षेत्र में वेद किया जा सकता है परमात्मा समभाव में है वे रोगी के रूप में बीमार होते हैं और चिकित्सक के रूप में चिकित्सा करते हैं वह जीव में भी हैं और शिव में भी हैं अंगुलिमाल में भी है तो बुध में भी हैं किसी संत की ऊंचाई मापने अत्यंत दुष्कर है जबकि गुरु की पहचान उसका शिष्य होता है शिष्य से ही गुरु को जाना जाता  है शीशे के कर्मों से ही गुरु को जाना जाता है इसके शिक्षा से ही गुरु को जाना जाता है शिष्य के ज्ञान से ही गुरु को जाना जाता है इसीलिए गुरु की पहचान उसका शिष्य होता है चिकित्सक की पहचान लोगी होता है दानी की पहचान याचक होता है गुरु की गरमा शिष्य के शिव होने पर निर्भर करती है शिव होना गुरु पद के अस्तित्व का कारण है।।
 आज का परिवेश अधिकांशत पंचम कार में जी  रहा है। साधना को जाति से दूर व्यक्ति भौतिकवाद की ओर भागा चला जा रहा है ऐसी परिस्थिति में मात्र उपदेश सुनने से कामनाओं और वासनाओं का त्याग अत्यंत कठिन है ।भौतिक सुख-सुविधा की वर्जना का साधन पूजा की ओर अग्रसर होना दुष्कर हो गया है ।तंत्र वर्जना ओ की बात नहीं करता यह पंच मकार आदि साधना   पद्धतियों से स्वत स्पष्ट है तंत्र कहता है।

 तृप्ति भोग में है चित्त वृत्ति निरोध योग निरोध योग इस काल में कठिन हो  आया है किंतु तंत्र की विधा को भोग में योग की बात कहती है। प्रवृत्ति से प्रवृत्ति के द्वारा ही निवृत्ति हो सकती है बशर्ते सही गुरु का मार्ग निर्देशन प्राप्त हो सही गुरु के अभाव में तो भोग पर रोक नहीं लगता भोग के सागर में मनुष्य को डुबो  देना होगा यही कारण है कि सभी आध्यात्मिक  विभूतियों के द्वारा गुरु को सर्वोच्च माना गया है। उन्हें परमात्मा से भी अधिक महत्व दिया गया है। कहा जाता है कि कोई भी गुरु शिव साम्राज्य के अधीन होता है ।शिव सद्गुरु के भी गुरु है गुरु की परिभाषा है कि वह शिष्य में शिव का भाव आवेश जलाते हैं गुरु शिष्य को अपने जैसा बनाते हैं सद्गुरु शिष्य को भोग और मोक्ष अभिन्न रूप से देते हैं। शिव को जगतगुरु सभी गुरुओं का गुरु माना जाना अर्थहीन नहीं है।

महज औपचारिकता नहीं है अगर पंथ के सिद्ध गुरु बाबा कीनाराम और योगीराज गोरखनाथ में व्यक्तिगत रूचि यों के आधार पर  विभेद है किसी सिद्ध गुरु के द्वारा आध्यात्मिक पराकाष्ठा पर पहुंचने हेतु गृहस्थ जीवन की वर्जना की गई हो तो किसी सिद्ध गुरु के द्वारा सन्यास और गृहस्थ में कोई बंधन माना गया है।

 शिव गृहस्थ जीवन यापन करने वाले सिद्ध गुरुओं के भी गुरु हैं और अकेला जीवन जीने वाले सद्गुरु ओं के भी गुरु हैं प्रत्येक सद्गुरु अपने अपने सैद्धांतिक विचारों के अनुरूप शिष्यों को शिव की  ओर ले जाते हैं।।।
 साहब श्री harindranand जी।।

 साहब कहते हैं इशू में अध्यात्मिक सभी आयामों का  सम्मेलन दिखता है  वे योगेश्वर हैं अघोरेश्वर हैं तंत्र के प्रणेता है वह गुरु है इसका अर्थ है कि वह सभी शिष्य को शिव बनाते हैं वह जगतगुरु है इसका अर्थ है कि जगत में योग मार्ग तंत्र मार्ग अघोर पंथ या अन्य किसी साधन मार्ग से अगर कोई अध्यात्म की ओर चलना चाहता है तो वह शिव  काशी से हो सकता है  वे सभी विधाओं के परम ज्ञाता हैं।।।




अभी अट्ठा नाम तथा गुण वाले गुरु की कमी होने के कारण आवश्यकता हो गई है। कि अपने घर के बाबा शिव को गुरु माना जाए उन्हीं का शिष्यतह  ग्रहण किया जाए  घर घर के बाबा शिव ही जो जगतगुरु हैं वही परम  ज्ञानागा र है।

 यह कतई आवश्यक नहीं है कि गुरु मानव शरीर में गुरु का कार्य कर सकते हैं कहा गया है कि सद्गुरु मात्र  दया से मोक्ष  देते हैं स्पष्ट है कि परमात्मा जब जीव को कालचक्र से वापस आनंद की परिधि में लाना चाहते हैं तो परमात्मा के इसी करुणा भाव  को गुरू भाव खाते हैं
 गुरु भाव जिस मानव शरीर में प्रकट होता है वह गुरु का शरीर होता है ।गुरु का संबंध मात्र  शिष्य से होता है। अर्थात गुरु भाव और शिष्य भाव में अन्योन्याश्रित संबंध है ।शिष्य भाव  मनु पैदा होता है मन में ही अन्य भाव पैदा होते हैं जैसे पिता भाव मात्र भाव मित्र भाव का भाव आदि मनुष्य के सारे संबंधित भाव प्रधान है ।भाव के तिरोहित होते ही संबंध बिखर जाते हैं कि वह संबोधन की औपचारिकता चलती रहती है। गुरु शिष्य पिता-पुत्र पति-पत्नी आदि संबंध भाव की आधारशिला पर खड़े हैं ।।

तंत्र कहता है कि भाव का अवलंबन शिव गुरु के रूप में भाव  सत्ता है क्योंकि गुरु को शिष्य के भाव से भावित होना है गुरु पद का सृजन ही शिष्यों के लिए है कि जब गुरु है तो गुरु का कार्य करना उनकी जवाबदेही है अगर कोई उन्हें गुरु भाव देता है यानी अपने में उनके गुरु होने का शिष्य भाव पैदा करता है तो शिव उस शिष्य को अपने जैसा बढ़ाने का भार वाहन करना होगा आदिकाल से अभी तक जगतगुरु की उपाधि से विभूषित  है इससे स्पष्ट है कि अपने शिष्य को शिव बनाने का भार  वे वाहन करते रहे हैं।

 गुरु रूपी शिव सत्ता को यदि अपना शिष्य भाव दिया जाए तो निश्चित रूप से शिष्य के शिव होने का प्रक्रिया प्रारंभ होगी मानसिक चिंतन धारा स्वार्थ जनित कटक बंधुओं को तोड़कर  सर्व मैं  होगी ही क्योंकि शिव   सर्वमय सर्वतंत्र स्वरूप है।।


  




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