।।प्रथम शिव शिष्य साहब श्री हरिन्द्रा नंद जी ।।
।।आओ चले शिव की ओर ।।
।।साहेब श्री हरिन्द्रा नन्द जी की जीवनी।।
हम चलते हैं समय के उन लम्हों के पास जहाँ से उपजता है यह।। शिव आज भी गुरु हैं ।।, और वे जन जन के गुरु हैं । ईयर 1948के ठंड की सर्दियों के आगमन के साथ दीपावली के दिन प्रातः कार्तिक कृष्णा पक्षी चतुर्दशी को बिहार जिले के तात्कालिक छपरा जिले के सिवान से 5 किलोमीटर की दूरी पर अवस्तित गांव।। अमलोरी।। के एक मिट्टी के घर में जन्म हुआ था हरिन्द्रा नंद जी का ।। उनके पिता श्री विश्वनाथ सिन्हा और माता श्री मति राधा की प्रथम संतान के रूप में वह ज्योति प्रकट हुई थी।।
वर्ष 1961में उनके पिता शिक्षा विभाग में मुंगेर के जमुई अनुमंडल में अनुमंडल शिक्षा पदाधिकारी के रूप में पद स्तापित थे।।उन्ही दिनों पिता से मिलने आये एक तांत्रिक से श्री हरिन्द्रा नन्द जी का आठवां कच्छ का बचपन उलझ पड़ा और वही से शुरू है कहानी जब उन्होंने तांत्रिक क्रियाओं को सीखने के लिए समशान और साधुओं का संघ पकड़ा ।उनके पिता कहते थे कि वर्ष 1953 - 54 में जब हरिन्द्रानंद जी 5 वर्ष के थे तो उनकी आदतों में शामिल था अपने दोस्तो के साथ आसन लगाकर बैठना और भूत प्रेत , तंत्र मंत्र की तरह , तरह की बाते करना। वह यह भी बताते थे कि अध्यन में उनकी रुचि काम थी लेकिन ।शिव की तश्वीर को कुर्शी टेबल लगाकर दीवार से उतारना और पेट्रोल के खाली डिब्बे में पानी भरकर घर की सीढ़ियों की मेज के रूप में इस्तेमाल कर कर रबर की पाइप से पानी गिरा गिरा कर शिशे में मढ़ी हुई शिव की तस्वीरों को पानी से गला देना उनकी आदत थी।।
आठवी कच्छ के पूर्व से रात में समशान की साधना की और दिन के उजाले में तरह तरह की योग साधना करने का अभ्यास उन्होने प्रारम्भ किया ।उनका यह शौक पारिवारिक मान्यता के विपरीत था ।।विद्यालय शिक्षा राज्य के भिन्न जिलो में चलती रही और हायर सेकंडरी शिक्षा की लगभग तीन वर्ष की अवधि के क्रम में सहायता जिला कारागार के निकट एक नदी के किनारे रात्रि में वे समशान जाते थे ।।समशान की साधना करने वाले दो तीन व्यक्तियों से समशान में उनकी मित्रता भी हुई ।।उस समय साहेब स्कूल के स्टूडेंट थे ।। वर्ष 1972 में हरिन्द्रा नंद जी का विवाह तात्कालिन पलामू जिले के मनातू प्रखंड में सम्पन हुआ । उनके पिता को विश्वास था की विवाहोपरांत बेटे की बेतुकी आदतों में परिवर्तन हो जाएगा ।।उन्हे dar था कि समशान साधना और अध्यात्म में बढ़ते झुकाव के कारण उनका बेटा लौकिक जीवन से विरात न हो जाए ।।
परिणाम यह हुआ कि साधना और उसे बताने वालो के प्रति उनके मन मे तिव्र वितृष्णा उत्पान हुई और वर्ष 1974के नवंबर माह में इसी मानसिक अवसाद की स्थिति में श्री हरिन्द्रानंद नंद जी के मन मे एक विचार आया ।।वह श्लोक उन्हे स्मरण आया जिसे पाठषाला में याद कराया गया था ।।
।।गुरुब्रह्म गुरुर्विष्णुः गुरुदेवो महेश्ववर ।।
।।गुरु साक्षात पारब्रह्म , तश्मे श्री गुरुवेनमः।।
गुरु ब्रह्मा है , गुरु विष्णु है , गुरु महेश्ववर है, गुरु साक्षात परमात्मा है।। हरिन्द्रानंद जी परमात्मा भगवान शिव को समझते थे और उन्होंने भगवान शिव को परमात्मा समझ कर शिव को अपना गुरु बना लिया साथ ही साथ दुखी मन से तय किया कि जब शिव को गुरु बना लिया है तो गुरुओ , तांत्रिक , अघिरियों द्वारा बतलायी और सिखलाई गई साधना और पूजा अब नही करेंगे । महादेव भी ,जिनको उन्होने गुरु बना लिया आसमान से लोक में प्रचलित शिव वेश में प्रकट होंगे तो भी उनसे गुरु रूप में वे कुछ नही सीखेंगे एवं धरती के किसी भी शरीरधारी साधु अथवा गुरु से भी कुछ नही सीखेंगे ।।
**मुझ से मनुष्य जो होते हैं , कंचन का भार न धोते हैं ।
पाते हैं धन बिखराने को, लाते है रतन लूटने को।
जग से न कभी कुछ लेते है, दान ही ह्रदय का देते है।।**
श्रद्धा ,विश्वास और समर्पण के अभाव में भी महेश्ववर शिव की शिष्यता अंकुरित पल्लवित ,पुष्पित हो सकती है ,होती है। उनकी शिष्यता के फूलों की सुगंध अविश्वास अश्रद्धा ,संशय को विनास्थ कर देती है।।विश्व गुरु शिव स्वयं शिव गुरु को वर्ल्ड मानव के अभ्युदय का उत्तरदायित्व लेना ही पड़ेगा ।।दूसरी ओर आज विकसित हो रही मानवीय चेतना के दया भाव अर्थात गुरुभाव से जुड़ने का एकमात्र विकल्प ही अब ग्रहा है ।।
साहेब श्री हरिन्द्रानंद जी कहते है ।।
शिव को अपना गुरु बनाइये और उनके आदेश का पालन करिये ।।
साहेब ने 3 सूत्र दिए है ।।
1) दया मांगना है अपने गुरु से ।।
2 )चर्चा करना है गुरु की ।
3) नमः शिवाय से अपने गुरु शिव को प्रणाम करना है ।
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