!मन से मानो शिव आज भी गुरु हैं!
हमारे गुरु शिव ।।
शिव के निराकार साकार स्वरूप विवेद ने किया गया है। सदाशिव के रूप में वे इच्छा ज्ञान किया चित और आनंद के अथाह सागर हैं ।।अतएव निराकार साकार दोनों स्थितियां हो सकती हैं।। शिष्य को स्वतंत्रता है कि आरंभिक अवस्था में वह गुरु की निराकार स्थिति को स्वीकार करें या साकार स्वरूप को अंगीकार करें किसी भी परिस्थिति में शिव के लिए शिव गुरु की मात्र सा कार्य स्थिति स्वीकार्य नहीं है ।
शिव के शिष्य शिव गुरु को भाव सत्ता के रूप में नमन करते हैं कहा गया है कि है महेश्वर तुम्हें जानना समझना और पहचानना अनु मानस की सीमा से बाहर की बात है तुम जैसे भी हो तुम्हें बारंबार नमस्कार है ।।
शिव गुरु की दया कालांतर में गुरु सत्ता की परिस्थिति स्पष्ट कर देती है। यह तो सर्वथा मान्य है कि गुरु का शरीर धारी होना आवश्यक नहीं है। शिव के शिष्य जानते हैं कि शिव गुरु दया भाव के अच्छे स्रोत हैं ।और सृष्टि के कण-कण में उनकी इच्छा के साथ सतत मिश्रित दया भाव भी सन्निहित है।।शिव के शिष्य शिव गुरु को भाव सत्ता के रूप में नमन करते हैं कहा गया है कि है महेश्वर तुम्हें जानना समझना और पहचानना अनु मानस की सीमा से बाहर की बात है तुम जैसे भी हो तुम्हें बारंबार नमस्कार है ।।
मानव के अस्तित्व में गुरु भाव की स्थिति है ।
व्यक्ति जैसे ही शिव को शिव से भाव निवेदित करता है मानवीय चेतना में अवस्थित उनका दया भाव होता स्वता कार्यरत हो जाता है।। वस्तुतः शिव गुरु की दया ही वास्तविक दीक्षा है।
शिवगुरु के शिशु के लिए पारंपरिक दीक्षा आवश्यक नहीं है और साहब कहते हैं कि बिना गुरु के दया से उनकी चर्चा हो ही नहीं सकती गुरु है। जगत के गुरु हैं उनके गुरु हैं कोई भी अपना उन्हें गुरु मान सकता है और उनकी चर्चा कर सकता है जैसे हमने माना है वैसे ही आप को गुरु माना है और उनके तीन सूत्र का पालन करना है। दया मांगना है ।चर्चा करना है और नमः शिवाय से गुरु को प्रणाम करना है। आप कभी भी कहीं भी गुरु का चर्चा कर सकते हैं किसी से साहब का आ आदेश है।।
जीवात्मा से जुड़ी प्रत्यक्ष्ति अप्रत्यक्ष स्थितियां एवं माध्यम ही शिव धाम में प्रतिष्ठित मनुष्य आत्मा को शिव गुरु की दया के वशात शिवम मुख्य करनेेे लगते हैंउल्लेख है ।कि मानव शरीर में अभिभूत सभी गुरुओं सद्गुरु मैं महेश्वर शिव का दया भाव ही विभिन्न् अंशु में प्रस्फुटित होता है।
। शिव गुरु दया के एकमात्र जाता है ।
शेष सभी swarnam Dhanya Guru tatha Satguru pradata ke roopमैं पूजित हैं ।
कहा गया है कि ब्रह्मा गुरु को भी आंतर गुरु होना होता है वाणी शब्दों और मौन व्याख्यान कि सीमा से भी परे जाकर शीश आत्मा की परमात्मा से अन्विति सुनिश्चित करनी होती है गुरु सत्ता की शरीर की स्थिति गुरु शिष्य संबंध में महत्वपूर्ण नहीं मानी जाती है आज भी गुरु सद्गुरु के देहावसान के उपरांत उनकी शिष्य परंपरा निर्विघ्नं चलती है।।
मनुष्य के सहज प्रेम से परमात्मा लाभ है।इसी प्रेम उत्सव से सब भक्ति आधुनिक और तांत्रिक धारा प्रवाहित हुई है।
प्रेम मनुष्य का जन्मजात गुण है ।इसलिए प्रेम से संबंध परमात्मा पत्र की सारी विधाएं संप्रदाय जाति लिंग आदि के भेद को नहीं मानती है। शिव गुरु से शिष्य संबंध की भाव वस्था गुरु दया से उत्तरोत्तर प्रेमा विमुख हो जाती है। भाव संबंध प्रेम में परिणत हो जाता है प्रेम शिव गुरु से शिष्य को एक मेल कर देता है ज्ञातव्य है। कि शिव का शिष्य होने के लिए केवल अस्थाई शिष्य भाव अनिवार्य है। गुरु शिष्य का संबंध ही भाव भूमि पर आधारित होता है आज के व्यक्ति में प्रभाव जागतिक आकर्षण के कारण आलौकिक उनमें से काली विशेष में उत्पन्न हो तो किंतु अनस चेतना को प्रभावित नहीं कर पाता शिव गुरु के प्रति शिष्य भाव प्रवण होकर व्यक्ति का स्वभाव हो जाए ऐसी स्थिति सामान्य नहीं है।।
शिव को अपना गुरु मानकर उनका शिष्य होने के क्रम में प्राप्त विभूतियों के आधार पर तीन सूत्र समहत किये गए हैं ।।
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